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कविता

सुबह की धूप

सुबह की धूप 
खेलती 
मेरी गोद में ,
प्यारी नन्ही सी 
फुदफुदाती ,
कभी आँगन में 
क्रीड़ाएँ करती
उछलकर इधर-उधर 
चढ़कर दीवाल पर 
धम्म नीचे गिरकर 
ताली पीटती 
खिलखिलाती !
मुझे अच्छी लगती
जब गाल पर 
चुप्पी लगाकर 
छत से 
अँगूठा दिखाती ,
मुँह
छोटा हिलाकर !
पल में 
बाल विखराकर
हजारों में 
रूप बदलकर 
भयंकर ,
डराती
किन्तु शांत होकर 
कान में कहती 
कल लौटूंगी 
खेलूंगी 
फिर से 
तुम्हारी गोद में 
करूँगी नृत्य गायन 
आँगन में !

                 अशोक बाबू माहौर