मैं नमी हूँ
मैं
नमी हूँ
खड़ी हूँ
डटकर कोने में
झाड़ झकूटे
नदी तालाब
पोखर खाइयों
पहाड़ चोटी
जमीन के कण कण में I
मैं समेटना चाहती हूँ
संसार
बश में अपने
बांधना चाहती हूँ
बंधन में
प्यार जगाकर
सभी के
अंदर दिलों में I
किन्तु संसार मुझे
धकेलकर
फैंकना चाहता है
क्रूरता अग्नि दिखाकर
बल अपना अपनाकर
अजमाकर,
मैं सतर्क रहती हूँ
हर घडी
क्षण में
अनंत वातावरण में
भूमण्डल पर
इसलिए खड़ी हूँ
सबके सामने
आसपास अँधेरी रात में
उजाले में I
अशोक बाबू माहौर