(1)दिव्य आलोक
दिव्य आलोक मय
ये सुनहली रश्मियाँ
प्रभात की शुभ वेला में
प्रस्फुटित होते पल्लवों पर
जगा रही हैं प्रत्युष मनोहर
खिल रहे हैं पुष्प चहुँऔर
हो रहा हैं आलोक
मगर ………
उनका क्या
जिनके जीवन से
मिटा नहीं अभी तक डर
भूख - प्यास मिटाने का।।
वो गुमसुम उदास चेहरे
कब होंगे आलोकित
कब उनके घरों में
होगा ख़ुशियों का दिव्य आलोक
यक़ीनन जल्द ही
बहुत जल्द ही ………
बस यही एक विश्वास
अब तक बँधा हुआ हैं।
(2)है तमन्ना मेरी ऐसी
कि, मंद- मंद पुरवाई में
प्रीत के झोंके हो दिलों में
गुजारू एक रात सुहानी
श्वेत रेतीले टीलों में।।
हो चमक चाँदी सी जब
रेतीले हर कण -कण पर
लिख दूँ एक प्यारा सा नग़मा
उसकी चूड़ियों की खनक पर
चिलमीलिका के चमक सा
उसके टीके का हो चमकना
अरमानो की बुझती लो का
फिर अचानक से हो मचलना
झिलमिलाती सी चाँदनी में
जब देखूँ उसे दुल्हन सी सजी।
जब पास आएँ वो मेरे
उठे हवा में महक सी
फिर बहक उठे तन मन मेरा।
मधुर मिलन की आस में
अंग अंग पुलकित होकर
झूम जाए रास में
हो मदहोश सारा समां ज्यों
सावन की फुँहार सा
देख ऐसा रूप चंचल
बरस उठे घन प्यार का
बड़ी प्यारी बड़ी न्यारी
सुखद तमन्ना हैं मेरी
मगर डर है की कहीं
तमन्ना मुरझा न जाए मेरी
(3)उजालों की और
चलो चलें मिलकर
अब उजालों की और
भगाए तिमिर को दूर
लाए होंठों पर मुस्कान
पकड़ हाथ किसी अपाहिज का
पहुँचाएँ मंज़िल की और
देकर संबल थोड़ा सा
करें किसी का घर रोशन
देकर थोड़ा दुलार
अपनाएँ किसी अनाथ को
बनाकर परोपकार को लक्ष्य
मुस्काएँ हर इंसान को
आओ चले उधर
जिधर ना हो कोई द्वेष
ना हो कोई बंधन
बस उन्मुक्त हो उड़ चले
दे सपनों को उड़ान ।।
आओ चले मिलकर
ऐसे उजालो की और
अनमोल तिवारी"कान्हा"