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अशोक बाबू माहौर की लघुकथा



बारिश में संघर्ष 


      संध्या हो चुकी थी,बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही I घर टूटा फटा , छत से पानी की बूँदें राह बनाकर टपक रहीं I आखिर ममता घरेलु सामान को रखे तो कहाँ रखे ? अभी तक उसने खाना भी नहीं पकाया I बच्चे भूख से आह ! भर रहे ,माँ की तरफ बार बार निहारते I 
     "मम्मी बहुत भूख लगी है I "
     "बेटा थोड़ी बारिश थमने दो ,तब तक इंतजाम करती हूँ I "
     "अजी सुनते हो बच्चों को भूख लगी है , जरा चूल्हे को इधर रख दो I " 
     "भाग्यवान जल्दी से कुछ पकाओ ,मुझे भी भूख सता रही है I "
     फटी पुरानी तिरपाल कोने से उठाकर चारों तरफ तान दी I चूल्हे पर चावल चढ़ा दिए I कड़ी मेहनत के बाद सबको थोड़ा -थोड़ा खाना खाने को मिला I 
     बारिश ने भी दम तोड़ दिया I छत पर चिड़ियाँ चहचाह उठीं I ममता आँखें मलते बाहर निकली सारा वातवरण  शांतमय ,सुकून भरा मन प्रसन्नता से खिल उठा
                                   
                                                                                                                 अशोक बाबू माहौर