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अशोक बाबू माहौर की कविता


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मधु संताप  


यूँहीं
हरी घास पर मधुमक्खी
गुस्सा उतारकर
चली गई
जैसे चुरा लिया हो
कुर्ता इनका मखमल का I
गोल घेरे में
संताप झेलती
परियों सी प्यारी
तितली रंग बिरंगी
निहारती इधर-उधर
किन्तु नहीं
फूलों की बगिया कहीं
काश ! कहाँ बैठूँ
कैसे महकाऊं
अपना बदन खुशबू से I
श्याम चिरैया
उड़,पंख फैलाकर
कुछ कहती
हरी घासों से
मधुमक्खी ,तितलियों से ,
ओझल से
बादल में
दम नहीं
जो बना सके
महकती फुलवारी
फिर से
धरा पर I
       अशोक बाबू माहौर