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कविता


उधर नहीं इधर चल 

चल 
उधर चल 
नहीं 
इधर चल 
उधर सन्नाटा 
खौफ है 
इधर केवल मौन है I 

क्यों ?
परेशान है 
डर से 
केवल सन्नाटा ही है 
न कि ताण्डव,
बजते पत्ते 
पीपल के 
हवा की कूँ कूँ I 

कैसे इंसान हो ?
लंबे चौड़े पहलवान 
पैर थरथराते तुम्हारे 
जुबान काँपती
रौंगटे खड़े 
रोते सिसकते 
स्तम्भ से 
क्या मुसीबत है ?
डर की बीमारी I 

छोड़ 
कदम छेड़ना
उधर मातम है 
यहाँ शांति समुन्दर 
अमिट मंथन है 
बिखरा अमूल्य 
मंगल है I 

       अशोक बाबू माहौर