उधर नहीं इधर चल
चल
उधर चल
नहीं
इधर चल
उधर सन्नाटा
खौफ है
इधर केवल मौन है I
क्यों ?
परेशान है
डर से
केवल सन्नाटा ही है
न कि ताण्डव,
बजते पत्ते
पीपल के
हवा की कूँ कूँ I
कैसे इंसान हो ?
लंबे चौड़े पहलवान
पैर थरथराते तुम्हारे
जुबान काँपती
रौंगटे खड़े
रोते सिसकते
स्तम्भ से
क्या मुसीबत है ?
डर की बीमारी I
छोड़
कदम छेड़ना
उधर मातम है
यहाँ शांति समुन्दर
अमिट मंथन है
बिखरा अमूल्य
मंगल है I
अशोक बाबू माहौर
