लटके हुए अधर पर
लटके हुए अधर पर
शब्दों से
और पुलकित झूमती
मोंगरे की डाली से पूछा-
क्यों ?
प्रसन्नपूर्ण
अधर पर चिपके,
हल्की हवा से
तुम लहराती हो
जैसे मदमस्त
ढेरों गम छोड़कर I
आकाश अब भी
कमर झुकाए खड़ा
माँगता दुआएँ
कुछ अपनी तुम्हारी
अलौकिक प्रार्थना कर,
यूँहीं बनी रहे
सुंदरता प्रकृति की I
अशोक बाबू माहौर