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कविता (लटके हुए अधर पर)


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लटके हुए अधर पर

लटके हुए अधर पर
शब्दों से
और पुलकित झूमती
मोंगरे की डाली से पूछा-
क्यों ?
प्रसन्नपूर्ण
अधर पर चिपके,
हल्की हवा से
तुम लहराती हो
जैसे मदमस्त
ढेरों गम छोड़कर I

आकाश अब भी
कमर झुकाए खड़ा
माँगता दुआएँ
कुछ अपनी तुम्हारी
अलौकिक प्रार्थना कर,
यूँहीं बनी रहे
सुंदरता प्रकृति की I

           अशोक बाबू माहौर