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कविता(अशोक बाबू माहौर)


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पेड़ों पर 

पेड़ों पर 
जमी बैठी
सुबह से
बूँदें गोल मटोल  
मुस्काती डाली पत्तियों पर 
लगती प्यारी 
जैसे धारण कर नव वस्त्र 
पुलकित झूम रही हो
करती नृत्य। 

नव ताक रहा,  
गौरैया बैठ डाली पर 
पौछ रही 
मानो बदन
यूँही खिलखिलाती वात 
डरा रही 
बूँदों को 
दिखा बल अपना 
रूप अनेक। 

किंतु बूँदें मस्तमौला 
न डरतीं
तीर प्रहारों से 
तोप ललकारों से। 

            अशोक बाबू माहौर