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कविता(अशोक बाबू माहौर)

खामियाँ थी मेरी 

खामियाँ थी 
सब मेरी 
मैंने ही जलाये थे 
सपने 
कूड़े के ढेर में 
यूँही ही 
बस यूँही 
मैं ताप लिया 
लाचार बन 
हाथ सेंकता I 
आप खरी खोटी 
तभी सुनाते हो 
मुझे,
दिखा हथेली 
क्यों ?
क्या मैंने संघर्षों से 
मुख मोड़ लिया 
या थक गए हाथ पैर
बैठा हूँ 
दुबका कौने में 
मैं अभी उठा लूँगा 
पहाड़ भी 
अभी अभी 
हाँ अभी अभी I 

    अशोक बाबू माहौर