खामियाँ थी मेरी
खामियाँ थी
सब मेरी
मैंने ही जलाये थे
सपने
कूड़े के ढेर में
यूँही ही
बस यूँही
मैं ताप लिया
लाचार बन
हाथ सेंकता I
आप खरी खोटी
तभी सुनाते हो
मुझे,
दिखा हथेली
क्यों ?
क्या मैंने संघर्षों से
मुख मोड़ लिया
या थक गए हाथ पैर
बैठा हूँ
दुबका कौने में
मैं अभी उठा लूँगा
पहाड़ भी
अभी अभी
हाँ अभी अभी I
अशोक बाबू माहौर