आँख मिचौली खेल
आँख मिचौली खेल
धूप चली
जाड़े की
कभी लाँघ दीवारें
कभी छत पर
उछल कूद कर
धम्म नदी में
चढ़ पेड़ों पर
मुस्कान मधुर छोड़ चली।
ठगे से हम
धूप संग
हौले हौले चलते
जैसे खोज रहे
स्वर्ण अमूल्य
आँखें टिकाये,
सिर चिंतित
कहीं लग न जाये
खौफ सर्दी का।
अशोक बाबू माहौर
आँख मिचौली खेल
धूप चली
जाड़े की
कभी लाँघ दीवारें
कभी छत पर
उछल कूद कर
धम्म नदी में
चढ़ पेड़ों पर
मुस्कान मधुर छोड़ चली।
ठगे से हम
धूप संग
हौले हौले चलते
जैसे खोज रहे
स्वर्ण अमूल्य
आँखें टिकाये,
सिर चिंतित
कहीं लग न जाये
खौफ सर्दी का।
अशोक बाबू माहौर