युग और इंसान
मनुष्य और युग एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसे-जैसे युग बदलता है, वैसे-वैसे मनुष्य की सोच, जीवनशैली, आवश्यकताएँ और मूल्य भी बदलते हैं। हर युग का अपना एक विशेष स्वरूप होता है, जो उस समय की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक परिस्थितियों से निर्मित होता है। वहीं, इंसान भी उस युग का निर्माणकर्ता होता है। वह अपने ज्ञान, कर्म और व्यवहार से युग को दिशा देता है।
प्राचीन युग में जब सभ्यता का आरंभ हुआ, तब मनुष्य प्रकृति के अधीन था। उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं—रोटी, कपड़ा और मकान ही उसकी ज़रूरतें थीं। धर्म, दर्शन और अध्यात्म जीवन का मूल आधार बने। इंसान ने पेड़ों, नदियों और आकाश में ईश्वर को देखा। उस युग का मानव सरल, प्रकृति-निष्ठ और सामूहिक जीवन में विश्वास करने वाला था।
मध्यकाल में धार्मिकता के साथ-साथ सत्ता और वर्चस्व की होड़ शुरू हुई। इंसान ने इंसान पर राज करना शुरू किया। इस युग में सामाजिक असमानता, जात-पात और अनेक कुरीतियाँ पनपीं। एक ओर कला, साहित्य और स्थापत्य का विकास हुआ, तो दूसरी ओर युद्ध, शोषण और अंधविश्वास भी बढ़े। इंसान धर्म के नाम पर बँट गया।
आधुनिक युग तकनीक और विज्ञान का युग है। आज का मनुष्य चाँद और मंगल तक पहुँच चुका है। संचार, यातायात, चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में चमत्कारी विकास हुआ है। इंसान ने प्रकृति को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की है। परंतु इस विकास की दौड़ में वह अपनी संवेदनाओं से दूर होता जा रहा है। रिश्ते कमजोर हुए हैं, तनाव और अकेलापन बढ़ा है। पर्यावरण संकट और मानवीय मूल्यों का ह्रास भी इसी युग की देन है।
इंसान ने युग को बदला है, पर हर युग ने भी इंसान को नए प्रश्नों के सामने खड़ा किया है। आज का युग "डिजिटल युग" है, जहाँ सूचनाएँ तेज़ी से फैलती हैं और हर व्यक्ति "कनेक्टेड" तो है, पर शायद "जुड़ा" नहीं है। तकनीक ने जीवन को आसान बनाया है, लेकिन मन की शांति छीन ली है।
आज ज़रूरत इस बात की है कि इंसान फिर से आत्मावलोकन करे—क्या युग के साथ बढ़ते-बढ़ते हम कहीं अपने भीतर के इंसान को तो नहीं खो बैठे? क्या विकास का मापदंड केवल तकनीकी तरक्की होना चाहिए? क्या मानवीय मूल्य, करुणा, सहयोग और संवेदना अब बीते युग की बातें बनकर रह जाएँगे?
हर युग में बदलाव अपरिहार्य होता है, पर इंसान के हाथ में यह ताकत है कि वह युग को किस दिशा में ले जाए। यदि हम अपने भीतर की अच्छाई को बचाकर रखें, तो कोई भी युग हमारे लिए अंधकारमय नहीं होगा।
युग बदलते रहते हैं, पर इंसान यदि सजग रहे, तो वह हर युग को सुंदर, मानवीय और संतुलित बना सकता है। युग की गति को पहचानना और उसे सही दिशा देना ही सच्चे इंसान की पहचान है।
