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लघुकथा - सरला - अशोक बाबू माहौर

 सरला


बार - बार दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़। सरला ने खिड़की से झाँका, एक आदमी तन पर पीले वस्त्र धारण किए साधु सा खड़ा था। सरला पहले डर सी गयी किंतु निड़र होकर दरवाज़े की तरफ बढ़ी, "बहन इस भिक्षु को कुछ भिक्षा दीजिए।"



सरला ने एक कटोरी आटा उसकी झोली में डाला और अंदर की तरफ बढ़ी ही थी कि आदमी ने फिर टोका, "बहन कुछ और मिल जाता तो ठीक था।"

सरला भोली - भाली दयालु सी बिना सोचे समझे रूपये उसे थमा दिए, आदमी खुश होता हुआ तेज़ गति से चला गया जैसे कोई अनमोल रत्न मिला हो!

सरला ठगी सी कुछ देर उस आदमी की ओर निहारती रही जैसे किसी ने मोहिनी विद्या की हो।


- अशोक बाबू माहौर