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पुत्रवधु

पेक्षाओं का टोकरा

सिर पर लादकर

हम बाखूशी स्वागत करते हैं

अपनी पुत्रवधु का।

अंजाने लोग,परिवार, परिवेश में

हम उसकी स्थिति को

समझना कब चाहते?

अपने स्वार्थ की गंगा में

बस। क्रीड़ा करते,

वह भी इंसान है

किसी की बहन बेटी है,

भावनाओं के ज्वार के बीच

गड्डमड्ड हो रही उसकी

किसी को फिक्र  तक नहीं।

ये विडंबना नहीं 

तो और क्या है?

चंद पलों में बस जैसे

उसका अस्तित्व ही खो गया,

बेटी थी तब तक सब ठीक था,

वधु क्या बनी

उसका वजूद ही जैसे

दीनहीन हो गया,

परिंदा पंख विहीन हो गया।

   

                सुधीर श्रीवास्तव

                गोण्डा,उ.प्र.

                8115285921