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मैं क्या लिखूं

मैं क्या लिखूं

कभी जो मन बड़ा बेचैन हो जाता
चाहता है कुछ बोलना 
पर कह नहीं पाता
आसपास की घटनाएं करती व्यथित बड़ा
पर न उनका हल कुछ निकल है पाता
मन फिर होने लगता है भारी
कहते अपने मित्र कलम से 
अब तेरी है बारी
उठाते है डायरी अपनी और कलम
जो आता मन में बस 
वही लिख लेते हम
मैं क्या लिखूं ? 
यह प्रश्न मन में आता कई बार
क्या उत्तर में पाउँगा बदले में इस - बार
माना की सामने कोई इंसान ना खड़ा
जो जवाब दे उन प्रश्नों का 
जिनको हमने लिखा
पर सच कहूं जो लिखते है 
वे करते सवाल स्वयं से
क्या बदलाव ला सकते है हम पहले स्वयं से
लिखना हमें अपनी अंतरात्मा से जोड़ता
उस से ही तो बन्दे तू स्वयं में बदलाव कर पाता
यह याद रख जब बदलोगे तुम  
तो  समाज बदलेगा
बस लिखता जा न सोच 
मैं की क्या लिखूं 
तुझे जवाब जरूर मिलेगा|

                       नंदिनी लहेजा
                             रायपुर(छत्तीसगढ़)