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खूबसूरत अनुभूतियां

 खूबसूरत अनुभूतियां



मय के चक्र के साथ-साथ जीवन की यात्रा निरंतर चलती रहती है| मां की गोद में एक  नवजात शिशु,  माँ  ही जिसका संसार,  मां की मीठी लोरी और उसका  ममतामई स्पर्श से  सजी खुशहाल दुनिया|

 पिता की उंगली पकड़ चलते चलते आया बालपन| मां की गोद से दायरा बढ़कर पड़ोस तक आ गया| हमउम्र बच्चों के साथ खेलना-कूदना, मौज -मस्ती रूठना -मनाना, लड़ना -झगड़ना,  व्यस्त हो गई गुड़िया और खिलौनों की संसार में|

 पिताजी के पास पढ़ते,  उनके संग स्कूल जाते आया लड़कपन| बंद हुई मनमानी, हो गई मैं थोड़ी सयानी,  मां पिताजी के  अनुशासन में रहना,  सुबह शाम पढ़ना,  पिताजी के संग स्कूल जाना,  शाम को खेलना,  घर के छोटे-मोटे कार्यों  में, मां की मदद करना| यही होती हम मध्यमवर्गीय परिवार की बेटियों की कहानी|  स्कूल में सखी सहेलियों का इंतजार रहता,  भोजनावकाश में  कबड्डी और तेज दौड़ने की रेस लगाती, स्कूल का समय हमेशा ही बहुत आनंददायक और खुशहाल रहा |पिताजी जब भी दौड़ की रेस कराते, जितने का जूनून मुझपे हावी रहता | जब दौड़ कर वापस पिताजी के पास आती तो ऐसा लगता जैसे मैंने सारी दुनियाँ जित लि, पिताजी भी खुश होकर मुझे अपनी गोद में ले लेते |

 मेरे पिताजी अपने कॉलेज में दौड़  में चैंपियन रह चुके हैं,  इसलिए मुझे तेज दौड़ता देख उनको मुझ में अपनी छवि दिखाई देती|

 कक्षा में गणित बनाते समय मेरे पिताजी  अपनी कुर्सी पर बैठे  मेरे हाथों को देखकर समझ जाते कि मैं हिसाब सही बना रही हूं| जब गलत कर रही होती तो वहीं से  कह देते कि  तुम गलत बना रही हो आओ मेरे पास मैं समझा देता हूँ |

 परीक्षा के समय पिताजी मुझे  सबसे अलग बिल्कुल दूर हटा कर बैठाते,  ताकि मैं कभी किसी की नकल ना कर सकूं| और परीक्षा के बाद  मेरे सामने ही मेरी कॉपी चेक करके मुझे नंबर बता देते| विज्ञान में मुझे 80% अंक आए मैं बहुत खुश हुई| और एक हास्यास्पद बात  जब हिंदी की परीक्षा हुई तो मुझे  मात्र 14 अंक आए| मेरी गलत वर्तनी में मेरे सारे अंक कट गए|

दिसम्बर से फरवरी तक पिताजी प्रतिदिन सुबह 5 बजे हमसभी को जागते फिर कम्बल तथा रजाई में घुसकर पिताजी से कहानियाँ सुनते |उफ्फ क्या दिन थे, वो, आज भी सर्दियों में फिर से बच्चा बनकर जीने का मन करता है |हर सुबह एक नया रोमांच लेकर आता कि आज पिताजी क्या कोई नया क्रियाकलाप कराएँगे... एक सुबह बोले सब बारी - बारी से गाना सुनाओ | मेरे भाई ने कहा मैं गा नहीं पाऊंगा... तो पिताजी बोले इस बात को भी गाकर बोलो.... मेरे चचेरे भाई कौशिक ने झट से गाते हुए कहा.... जेठू ///हमको ////नहीं ////आता है //////......पिताजी के साथ हम सब के ठहाके  घर में गूंज उठे |

कितना सुहाना होता घर से स्कूल तक का सफर, पिताजी के साइकिल पर, सड़क के दोनों तरफ हरे - भरे खेत |साइकिल  में कभी मैं पिताजी के आगे बैठती तो कभी पीछे, पीछे बैठे जब शरारत सूझती तो साइकिल पर खड़ी हो जाती, पिताजी मेरी हरकत से हस्ते भी और परेशान भी होते |पर मुझे क्या? मैं तो सबकुछ से बेखबर इतनी खुश रहती, जैसे ये सारा संसार ही मेरा है |जहाँ चाहे जाऊं, जो चाहे करूँ |स्कूल से पहले नदी पार करनी परती, नदी के पानी में जब पैर डूबोती तो मुझे बहुत आश्चर्य होता कि इतनी सर्दी में पानी गर्म कैसे है ?पिताजी से पूछती तो वो मुझे बताते कि सर्दियों में सुबह - सुबह पानी गर्म रहता है... मैं पानी में उछलती - कूदती स्कूल पहुँचती|


                                       ब्रह्माकुमारी मधुमिता' सृष्टि'

                                      मध्य विद्यालय सिमालिया

                                 बायसी पूर्णियाँ बिहार