भंडारे की उचित व्यवस्था
विभिन्न विशेष अवसरों पर सार्वजनिक रूप से सड़कों, चौराहों, मंदिरों और अन्य स्थानों पर भंडारा होना आम हो गया है।
ऐसा होना कोई अस्वाभाविक भी नहीं है लोग अपनी, सुविधा, खुशी और धार्मिक निष्ठा और मनौतियां पूर्ण होने के लिए करते ही रहते हैं।
प्रश्न भंडारे के होने, करने का नहीं है, प्रश्न औचित्य का है। क्योंकि सामान्यतया देखने में आता है कि भंडारे में साधन संपन्न, जान पहचान, पड़ोसियों, भंडारे के स्थान के आसपास के लोगों, इष्ट मित्रों की संख्या अधिक होती है।
जबकि भंडारे का उद्देश्य पात्र व्यक्तियों को केंद्र में रखकर होनी चाहिए।ताकि किसी निर्बल, निराश्रित, असहाय, भूखे की एक समय की ही सही, कम से कम उसकी क्षुधा तो शांत हो सके।
इस तरह के भंडारे यदि बालाश्रम, वृद्धाश्रम, विधवा आश्रम, अति गरीब और भिखारी बाहुल्य आदि जगहों पर हो तो शायद भंडारे की सार्थकता प्रभावी हो सकती है। जिसका पेट भरा हो, उसके लिए ऐसे भंडारे महज तफरी के जैसे हैं या फिर धार्मिक निष्ठा से जुड़े होते हैं।
एक और महत्वपूर्ण बात देखने को मिलती है कि ऐसे सार्वजनिक भंडारे में अधिकांश रिक्शे वाले, कमजोर, लाचार, बेबश संकोच से जाते ही नहीं, क्योंकि अनेकों बार मिल चुकी झिड़कियां और उपेक्षा उनके पांवों की बेड़ी बन जाती हैं।
एक महत्वपूर्ण बात भंडारे की उचित और सार्थक सिद्ध हो सकती है कि भंडारे से यदा संभव पहले यदि पात्र और जरुरतमंद व्यक्तियों, क्षेत्रों तक सूचना देकर ससम्मान उन्हें आमंत्रित किया जाय तो वास्तव में भंडारे का असली उद्देश्य पूरा हो सकता है।
अन्यथा ऐसे भंडारे मरे को मारने जैसे ही होते रहेंगे। क्योंकि हम उनका मजाक ही तो बनाने में अपनी वाहवाही और मीडिया जगत की सुर्खियां पाने के स्वार्थ से अधिक नहीं कर रहे।
सच हमेशा कड़ुआ होता है मगर हम स्वीकार न करने की कसम खाकर मस्त हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
८११५२८५९२१
